Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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महेंद्रकुमार अब बहुत घबराए, अपनी जान किसी भाँति बचती न नजर आती थी। अगर कहीं रक्तपात हो गया, तो मैं कहीं का न रहूँगा! सब कुछ मेरे ही सिर आएगी। पहले ही से लोग बदनाम कर रहे हैं। आज मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत है! निरपराध मारा जा रहा हूँ! मुझ पर कुछ ऐसा शनीचर सवार हुआ है कि जो कुछ करना चाहता हूँ, उसके प्रतिकूल करता हूँ, जैसे अपने ऊपर कोई अधिकार ही न रहा हो। इस जमीन के झमेले में पड़ना ही मेरे लिए जहर हो गया। तब से कुछ ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती चली आती हैं, जो मेरी महत्तवाकांक्षाओं का सर्वनाश किए देती हैं। यहाँ कीर्ति, नाम, सम्मान को कौन रोये, मुँह दिखाने के लाले पड़े हुए हैं!
यहाँ से निराश होकर वह फिर घर आए कि चलकर इंदु से राय लूँ, देखूँ, क्या कहती है। पर यहाँ इंदु न थी। पूछा, तो मालूम हुआ कि सैर करने गई हैं।
इस समय राजा साहब की दशा उस कृपण की-सी थी, जो अपनी आँखों से अपना धन लुटते देखता हो, और इस भय से कि लोगों पर मेरे धनी होने का भेद खुल जाएगा, कुछ बोल न सकता हो। अचानक उन्हें एक बात सूझी-

क्यों न मुआवजे के रुपये अपने ही पास से दे दूँ? रुपये कहीं जाते तो हैं नहीं। जब मंजूरी आ जाएगी, वापस ले लूँगा। दो-चार दिन का मुआमला है, मेरी बात रह जाएगी, और जनता पर इसका कितना अच्छा असर पड़ेगा। कुल सत्तार हजार तो हैं, ही। और इसकी क्या जरूरत है कि सब रुपये आज ही दे दिए जाएँ? कुछ आज दे दूँ, कुछ कल दे दूँ, तब तक मंजूरी आ ही जाएगी। जब लोगों को रुपये मिलने लगेंगे तो तस्कीन हो जाएगी, .यह भय न रहेगा कि कहीं सरकार रुपये जब्त न कर ले। खेद है, मुझे पहले यह बात न सूझी, नहीं तो इतना झमेला ही क्यों होता। उन्होंने उसी वक्त इंपीरियल बैंक के नाम बीस हजार का चेक लिखा। देर बहुत हो गई थी, इसलिए बैंक के मैनेजर के नाम एक पत्र भी लिखा दिया था कि रुपये देने में विलम्ब न कीजिएगा, नहीं तो शांति भंग हो जाने का भय है। बैंक से आदमी रुपये लेकर लौटा तो पाँच बज चुके थे। तुरंत मोटर पर सवार होकर पाँड़ेपुर आ पहुँचे। आए तो थे ऐसी शुभेच्छाओं से, पर वहाँ विनय और इंदु को देखकर तैश आ गया। जी में आया, लोगों से कह दूँ, जिनके बूते पर उछल रहे हो, उनसे रुपये लो, इधर सरकार को लिख दूँ कि लोग विद्रोह करने पर तैयार हैं, उनके रुपये जब्त कर लिए जाएँ। उसी क्रोध में उन्होंने विनय से वे बातें कीं, जो ऊपर लिखी जा चुकी हैं। मगर जब उन्होंने देखा कि जन-समूह का रेला बढ़ा चला आ रहा है, लोगों के मुख आवेश-विकृत हो रहे हैं, सशस्त्र पुलिस संगीनें चढ़ाए हुए है, और इधर-उधर दो-चार पत्थर भी चल रहे हैं, तो उनकी वही दशा हुई, जो भय में नशे की होती है। तुरंत मोटर पर खड़े हो गए और जोर से चिल्लाकर बोले-मित्रो, जरा शांत हो जाओ। यों दंगा करने से कुछ न होगा। मैं रुपये लाया हूँ, अभी तुमको मुआवजा मिल जाएगा। सरकार ने अभी मंजूरी नहीं भेजी है, लेकिन तुम्हारी इच्छा हो तो तुम मुझसे अपने रुपये ले सकते हो। इतनी-सी बात के वास्ते तुम्हारा यह दुराग्रह सर्वथा अनुचित है। मैं जानता हूँ कि यह तुम्हारा दोष नहीं है, तुमने किसी के बहकाने से ही शरारत पर कमर बाँधी है। लेकिन मैं तुम्हें उस विद्रोह-ज्वाला में न कूदने दूँगा, जो तुम्हारे शुभचिंतकों ने तैयार कर रक्खी है। यह लो, तुम्हारे रुपये हैं। सब आदमी बारी-बारी से आकर अपने नाम लिखाओ,अंगूठे का निशान करो, रुपये लो और चुपके-चुपके घर जाओ।

एक आदमी ने कहा-घर तो आपने छीन लिए।
राजा-रुपयों से घर मिलने में देर न लगेगी। हमसे तुम्हारी जो कुछ सहायता हो सकेगी, वह उठा न रक्खेंगे। इस भीड़ को तुरंत हट जाना चाहिए, नहीं तो रुपये मिलने में देर होगी।
जो जन-समूह उमड़े हुए बादलों की तरह भयंकर और गम्भीर हो रहा था, यह घोषणा सुनते ही रूई के गालों की भाँति फट गया। न जाने लोग कहाँ समा गए। केवल वे ही लोग रह गए जिन्हें रुपये पाने थे। सामयिक सुबुध्दि मँडलाती हुई विपत्तिा का कितनी सुगमता से निवारण कर सकती है, इसका यह उज्ज्वल प्रमाण था। एक अनुचित शब्द, एक कठोर वाक्य अवस्था को असाधय बना देता।
पटवारी ने नामावली पढ़नी शुरू की। राजा साहब अपने हाथों से रुपये बाँटने लगे। आसामी रुपये लेता था, अंगूठे का निशान बनाता था,और तब दो सिपाही उसके साथ कर दिए जाते थे कि जाकर मकान खाली करा लें।
रुपये पाकर लौटते हुए लोग यों बातें करते जाते थे :
एक मुसलमान-यह राजा बड़ा मूजी है; सरकार ने रुपये भेज दिए थे, पर दबाए बैठा था। हम लोग गरम न पड़ते, तो हजम कर जाता।
दूसरा-सोचा होगा, मकान खाली करा लूँ, और रुपये सरकार को वापस करके सुर्खरू बन जाऊँ।
एक ब्राह्मण ने इसका विरोध किया-क्या बकते हो! बेचारे ने रुपये अपने पास से दिए हैं।
तीसरा-तुम गौखे हो, ये चालें क्या जानो, जाके पोथी पढ़ो और पैसे ठगो।
चौथा-सबों ने पहले ही सलाह कर ली होगी। आपस में रुपये बाँट लेते, हम लोग ठाठ ही पर रह जाते।
एक मुंशीजी बोले-इतना भी न करें, तो सरकार कैसे खुश हो। इन्हें चाहिए था कि रिआया की तरफ से सरकार से लड़ते, मगर आप खुद ही खुशामदी टट्टू बने हुए हैं। सरकार का दबाव तो हीला है।
पाँचवाँ-तो यह समझ लो, हम लोग न आ जाते, तो बेचारों को कौड़ी भी न मिलती। घर से निकल जाने पर कौन देता है और कौन लेता है! बेचारे माँगने जाते, तो चपरासियों से मारकर निकलवा देते।
जनता की दृष्टि में एक बार विश्वास खोकर फिर जमाना मुश्किल है। राजा साहब को जनता के दरबार से यह उपहार मिल रहा था।
संधया हो गई थी। चार ही पाँच असामियों को रुपये मिलने पाए थे कि अंधोरा हो गया। राजा साहब ने लैम्प की रोशनी में नौ बजे रात तक रुपये बाँटे। तब नायकराम ने कहा-सरकार, अब तो बहुत देर हुई। न हो, कल पर उठा रखिए।
राजा साहब भी थक गए थे, जनता को भी अब रुपये मिलने में कोई बाधा न दीखती थी, काम कल के लिए स्थगत कर दिया गया। सशस्त्र पुलिस ने वहीं डेरा जमाया कि कहीं फिर न लोग जमा हो जाएँ।
दूसरे दिन दस बजे फिर राजा साहब आए, विनय और इंद्रदत्ता भी कई सेवकों के साथ आ पहुँचे। नामावली खोली गई। सबसे पहले सूरदास की तलबी हुई। लाठी टेकता हुआ आकर राजा साहब के सामने खड़ा हो गया।
राजा साहब ने उसे सिर से पाँव तक देखा और बोले-तुम्हारे मकान का मुआवजा केवल एक रु. है, यह लो, और घर खाली कर दो।
सूरदास-कैसा रुपया?
राजा-अभी तुम्हें मालूम नहीं, तुम्हारा मकान सरकार ने ले लिया है। यह उसी का मुआवजा है।
सूरदास-मैंने तो अपना मकान बेचने को किसी से नहीं कहा।
राजा-और लोग भी तो खाली कर रहे हैं।
सूरदास-जो लोग छोड़ने पर राजी हों, उन्हें दीजिए। मेरी झोंपड़ी रहने दीजिए। पड़ा रहूँगा और हुजूर का कल्यान मनाता रहूँगा।
राजा-यह तुम्हारी इच्छा की बात नहीं है, सरकारी हुक्म है। सरकार को इस जमीन की जरूरत है। यह क्योंकर हो सकता है कि और मकान गिरा दिए जाएँ, और तुम्हारा झोंपड़ा बना रहे?
सूरदास-सरकार के पास जमीन की क्या कमी है। सारा मुलुक पड़ा हुआ है। एक गरीब की झोंपड़ी छोड़ देने से उसका काम थोड़े ही रुक जाएगा?
राजा-व्यर्थ की हुज्जत करते हो, यह रुपया लो, अंगूठे का निशान बनाओ, और जाकर झोंपड़ी में से अपना सामान निकाल लो।
सूरदास-सरकार जमीन लेकर क्या करेगी? यहाँ कोई मंदिर बनेगा? कोई तालाब खुदेगा? कोई धरमशाला बनेगी? बताइए।
राजा-यह मैं कुछ नहीं जानता।
सूरदास-जानते क्यों नहीं, दुनिया जानती है, बच्चा-बच्चा जानता है। पुतलीघर के मजूरों के लिए घर बनेंगे। बनेंगे, तो उससे मेरा क्या फायदा होगा कि घर छोड़कर निकल जाऊँ! जो कुछ फायदा होगा, साहब को होगा। परजा की तो बरबादी ही है। ऐसे काम के लिए मैं अपना झोंपड़ा न छोड़ईँगा। हाँ, कोई धरम का काम होता, तो सबसे पहले मैं अपना झोंपड़ा दे देता। इस तरह जबरदस्ती करने का आपको अख्तियार है, सिपाहियों को हुक्म दे दें, फूस में आग लगते कितनी देर लगती है? पर यह न्याय नहीं है। पुराने जमाने में एक राजा अपना बगीचा बनवाने लगा, तो एक बुढ़िया की झोंपड़ी बीच में पड़ गई। राजा ने उसे बुलाकर कहा, तू यह झोंपड़ी मुझे दे दे, जितने रुपये कह, तुझे दे दूँ,जहाँ कह, तेरे लिए घर बनवा दूँ! बुढ़िया ने कहा, मेरा झोंपड़ा रहने दीजिए। जब दुनिया देखेगी कि आपके बगीचे के एक कोने में बुढ़िया की झोंपड़ी है, तो आपके धरम और न्याय की बड़ाई करेगी। बगीचे की दीवार दस-पाँच हाथ टेढ़ी हो जाएगी, पर इससे आपका नाम सदा के लिए अमर हो जाएगा। राजा ने बुढ़िया की झोंपड़ी छोड़ दी। सरकार का धरम परजा को पालना है कि उसका घर उजाड़ना, उसको बरबाद करना?
राजा साहब ने झुँझलाकर कहा-मैं तुमसे दलील करने नहीं आया हूँ, सरकारी हुक्म की तामील करने आया हूँ।
सूरदास-हुजूर, मेरी मजाल है कि आपसे दलील कर सकूँ। मगर मुझे उजाड़िए मत, बाप-दादों की निशानी यही झोंपड़ी रह गई है, इसे बनी रहने दीजिए।
राजा साहब को इतना अवकाश कहाँ था कि एक-एक असामी से घंटों वाद-विवाद करते? उन्होंने दूसरे आदमी को बुलाने का हुक्म दिया।
इंद्रदत्ता ने देखा कि सूरदास अब भी वहीं खड़ा है, हटने का नाम नहीं लेता, तो डरे कि राजा साहब कहीं उसे सिपाहियों से धक्के देकर हटवा न दें। धीरे से उसका हाथ पकड़कर अलग ले गए और बोले-सूरे, है तो अन्याय; मगर क्या करोगे, झोंपड़ी तो छोड़नी ही पड़ेगी। जो कुछ मिलता है, ले लो। राजा साहब की बदनामी का डर है, नहीं तो मैं तुमसे लेने को न कहता।
कई आदमियों ने इन लोगों को घेर लिया। ऐसे अवसरों पर लोगों की उत्सुकता बढ़ी हुई होती है। क्या हुआ? क्या हुआ? क्या जवाब दिया? सभी इन प्रश्नों के जिज्ञासु होते हैं। सूरदास ने सजल नेत्रों से ताकते हुए आवेश-कम्पित कंठ से कहा-भैया, तुम भी कहते हो कि रुपया ले लो! मुझे तो इस पुतलीघर ने पीस डाला। बाप-दादों की निशानी दस बीघे जमीन थी, वह पहले ही निकल गई, अब यह झोंपड़ी भी छीनी जा रही है। संसार इसी माया-मोह का नाम है। जब उससे मुक्त हो जाऊँगा, तो झोंपड़ी में रहने न आऊँगा। लेकिन जब तक जीता रहूँगा,अपना घर मुझसे न छोड़ा जाएगा। अपना घर है, नहीं देते। हाँ, जबरदस्ती जो चाहे, ले ले।
इंद्रदत्ता-जबरदस्ती कोई कर रहा है! कानून के अनुसार ही ये मकान खाली कराए जा रहे हैं। सरकार को अधिकार है कि वह किसी सरकारी काम के लिए जो मकान या जमीन चाहे, ले ले।
सूरदास-होगा कानून, मैं तो एक धरम का कानून जानता हूँ। इस तरह जबरदस्ती करने के लिए जो कानून चाहे, बना लो। यहाँ कोई सरकार का हाथ पकड़नेवाला तो है नहीं। उसके सलाहकार भी तो सेठ-महाजन ही हैं।
इंद्रदत्ता ने राजा साहब के पास जाकर कहा-आप अंधो का मुआमला आज स्थगित कर दें, तो अच्छा हो। गँवार आदमी, बात नहीं समझता,बस अपनी ही गाए जाता है।
राजा ने सूरदास को कुपित नेत्रों से देखकर कहा-गँवार नहीं है, छटा हुआ बदमाश है। हमें और तुम्हें, दोनों ही को कानून पढ़ा सकता है। है भिखारी, मगर टर्रा। मैं इसका झोंपड़ा गिरवाए देता हूँ।
इस वाक्य के अंतिम शब्द सूरदास के कानों में पड़ गए : बोला-झोंपड़ा क्यों गिरवाइएगा? इससे तो यही अच्छा कि मुझे ही गोली मरवा दीजिए।
यह कहकर सूरदास लाठी टेकता हुआ वहाँ से चला गया। राजा साहब को उसकी धृष्टता पर क्रोध आ गया। ऐश्वर्य अपने को बड़ी मुश्किल से भूलता है, विशेषत: जब दूसरों के सामने उसका अपमान किया जाए। माहिर अली को बुलाकर कहा-इसकी झोंपड़ी अभी गिरा दो।

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